मानव एक सामाजिक प्राणी है। इसे बालक का सामाजिक विकास की सत्यता का आभास शिशु के प्रारम्भिक जीवन से ही मिलने लगता है। जिस प्रकार प्रौढ़ व्यक्ति विभिन्न आवश्यकताओं के लिये दूसरों पर निर्भर रहता है, उसी प्रकार बालक भी दूसरों की सहायता पर आश्रित रहता है। जैसे-जैसे बालक बड़ा होता है, उसकी दूसरों पर निर्भरता घटती जाती है, किंतु वह पूरी तरह कभी भी दूसरों से कट कर नहीं रह सकता। फलस्वरूप विभिन्न व्यक्तियों से उसका संपर्क बढ़ता है, परंतु इन लोगों में माता-पिता की भूमिका सबसे अधिक प्रभावशाली होती है। बालक के सामाजिक व्यवस्थित विकास में कई प्रकार की कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। ये कठिनाइयाँ उसके अनुभवों की कमी, परिवेश के प्रभाव और मानसिक स्तर के कारण होती हैं। सामाजिक विकास केवल बाहरी व्यवहार से नहीं, बल्कि मानसिक, संवेगात्मक और शारीरिक विकास से भी जुड़ा होता है। यह विकास क्रमिक होता है और प्रत्येक चरण में बालक की रुचियों, व्यवहार और सामाजिक संपर्क की प्रवृत्ति में परिवर्तन आता है।
बालक का सामाजिक विकास की आधारशिला:
परिवार बालक का पहला सामाजिक संपर्क परिवार होता है। उसकी प्रारंभिक आदतें, सोच और अभिवृत्तियाँ परिवार के वातावरण से निर्धारित होती हैं। बचपन में बालक पर विभिन्न प्रभाव बहुत शीघ्र पड़ते हैं, इसलिए एक सकारात्मक पारिवारिक वातावरण अत्यंत आवश्यक होता है।
बालक का सामाजिक विकास का अर्थ है
दूसरों के साथ सहयोगपूर्ण व्यवहार करने की योग्यता, आत्मनिर्भरता और सामाजिक जिम्मेदारियों को समझना। यह योग्यता धीरे-धीरे आती है और बालक के संपूर्ण व्यक्तित्व निर्माण में सहायक होती है।

बाल्यावस्था में सामाजिक व्यवहार के विविध रूप
बालक विभिन्न सामाजिक व्यवहारों को सीखता है जैसे:
साझेदारी करना
दूसरों की भावनाओं को समझना
समूह में कार्य करना
अनुकरण करना
तीन वर्ष की अवस्था में बालकों में अकड़न और जिद्द होती है। वे अपनी इच्छा के विरुद्ध कार्य करना स्वीकार नहीं करते। लेकिन चार वर्ष की उम्र के बाद यह जिद कम होने लगती है और बालक प्रौढ़ों के निर्देशों को समझने लगता है। इस उम्र से द्वेष, प्रतियोगिता और प्रशंसा की कामना विकसित होती है। वे दूसरों से बेहतर दिखने और प्रशंसा पाने की इच्छा रखते हैं। साथ ही, झगड़ा करना और बाद में सुलह कर लेना भी सामान्य व्यवहार का हिस्सा होता है।
सामाजिक व्यवहार में लिंग के आधार पर भिन्नताएं
शोधों से पता चलता है कि:
लड़के अधिक झगड़े करते हैं
लड़कियों में तर्क और शाब्दिक विरोध अधिक होता है
लड़के अधिक चिढ़ाते हैं और शारीरिक शरारतें करते हैं
यह व्यवहार उनकी सामाजिक स्थितियों, आत्म-सम्मान की भावना और समूह में स्वीकार्यता पर निर्भर करता है।

सामाजिक स्वीकृति की आकांक्षा
हर बच्चा चाहता है कि लोग उसकी ओर आकर्षित हों और उसके कार्यों की सराहना करें। यह प्रवृत्ति लगभग 4-5 वर्ष की अवस्था से स्पष्ट हो जाती है। बच्चा समझने लगता है कि वह लोगों का ध्यान केंद्र है या नहीं। जब उसे प्रशंसा नहीं मिलती तो वह असामाजिक व्यवहार भी दिखा सकता है, जैसे अनुशासनहीनता, झूठ बोलना या चीजें तोड़ना।
किशोरावस्था और असामाजिक प्रवृत्तियाँ
किशोरावस्था में, विशेषकर 12-14 वर्ष के दौरान, लड़के और लड़कियों में असामाजिक प्रवृत्तियाँ बढ़ जाती हैं। इनमें सम्मिलित हैं:
अकेलापन पसंद करना
माता-पिता से दूरी बनाना
कल्पनाओं की दुनिया में जीना
पुराने मित्रों से कटना
यह प्रवृत्ति अस्थायी होती है और शारीरिक तथा मानसिक बदलावों का स्वाभाविक परिणाम होती है। परंतु यदि इस दौरान स्वास्थ्य खराब हो या वातावरण नकारात्मक हो, तो ये प्रवृत्तियाँ स्थायी हानि कर सकती हैं।
बालक का सामाजिक विकास के कारक:
स्वस्थ वातावरण
सकारात्मक पारिवारिक सहयोग
अनुकूल स्कूल वातावरण
अच्छे मित्रों का समूह
नैतिक मार्गदर्शन
निष्कर्ष
बालक का सामाजिक विकास एक सतत प्रक्रिया है जो उसके मानसिक, शारीरिक और संवेगात्मक विकास से जुड़ी होती है। यह विकास घर, स्कूल और समाज के सहयोग से ही संतुलित और सकारात्मक दिशा में बढ़ सकता है। माता-पिता, शिक्षक और अभिभावकों को बालकों की सामाजिक आवश्यकताओं को समझते हुए उन्हें उचित मार्गदर्शन देना चाहिए ताकि वे एक जिम्मेदार, आत्मनिर्भर और सहृदय नागरिक बन सकें।
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